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न्याय बैठा थका -थका सा है
ये तो अन्याय का इलाका है
हिन्दी, उर्दू या आंग्ल की छोड़ो
प्रेम की तो स्वयं की भाषा है
तन ढके हों , उदर भर जाए
हमको इतने में जीना आता है
आत्मा कैद तन में हैं ऐसे
पंछी पिंजड़े में कसमसाता है
फौजदारी व दुश्मनी पल-पल
गाँवों को आजकल हुआ क्या है
मुश्किलें सिर झुका रहीं खुद ही
मुझ पै’ आशीष ये बड़ो का है
– अजय जादौन ‘अर्पण’
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