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एगो लईकी के खातिर मुँह मोड़ लिहलस दोस्त
ज़िन्दगी में कबो रोले ना रही हम,
बनारस के घाट पर हाथ मे हाथ डाल के ओह दिन बईठल रही हम।
कबो हमसे झगड़त रही ऊ.. कबो शरारत करत रही ऊ,
फिर का भईल की अचानक रुठ गईलू तू,
चहनी मनावे के पर दिल तोड़ गईलू तू,
हमरा से जादे तोहके दोसरा पर रहे भरोसा,
हम रही हद से ज्यादा सीधा, ना पियत रही शराब का इहे से छोड़ गईलू तू,
हमार दिल रहे शीशा के इहे से तोड़ गईलू तू,
ज़िन्दगी में ऊ दिन कबो आई ना दोबारा,
चहबू आवे के हमरा लगे पर आ ना पईबू तू,
हम जानत बानी हमरा अलावे के दिही तोहरा के सहारा,
जेकरा पर करत रही हम भरोसा उहो छोड़ गईलस दोस्त,
एगो लईकी के खातिर मुँह मोड़ लिहलस दोस्त
बस एगो लईकी के खातिर मुँह मोड़ लिहलस दोस्त।
आलोक कुमार भारती
आरा , बिहार
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