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अत्याचार, घुटाले, रिश्वत।
आपाधापी खुलकर विधिवत।
हत्या, लूट, डकैती, टक्कर।
झूठ, जालसाजी का चक्कर।
आसमान को छूने वाली,
महँगाई की शान है।
लेकिन मेरी कविता में तो —
मेरा देश महान है।
अपराधी, अन्यायी मन्त्री।
खुश हैं देश बेचकर सन्त्री।
जनता में बढ़ रही निराशा।
बदली देश-भक्ति परिभाषा।
अनुशासन का काम न कोई।
दुर्गुण का सम्मान है।
चीनी, मिर्च, मसाले, सब्जी।
नमक,तेल की धज्जी-धज्जी।
कब-किसका नम्बर आ जाए।
ढूँढे वस्तु नहीं मिल पाए।
जीना हुआ हराम देश में,
यह अपनी पहचान है।
फैला हुआ प्रदूषण भारी।
मची हुई है मारामारी।
अपनी – अपनी पड़ी हुई है।
घड़ी कष्ट की खड़ी हुई है।
मिटने को इतिहास हमारा,
नहीं किसी को ध्यान है।
बैठा – बैठा कौन मदारी?
करता खेल लिए मक्कारी?
हमने अगर नहीं यह जाना।
अपना है फिर कौन ठिकाना?
आलम यही रहा भारत का,
तो कैसा कल्याण है?
सोया देश जगाने वाले।
देख रहे हैं बादल काले।
संकट का ऐलार्म बजाकर।
तत्पर अपना सृजन सजाकर।
प्रण है एक उगा डालेंगे,
आशा का दिनमान है।
डाॅ. शेषपालसिंह ‘शेष’
आगरा (उ.प्र.)
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