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सिकंदराराऊ क्षेत्र के गांव जिरोली कलां स्थित अंबिका मंदिर पर चल रही श्री राम कथा के सातवें दिन कथा प्रवक्ता व्यास जी पंडित दुर्गेश शास्त्री ने भारत का आह्वान करते हुए कहा कि राम के पदचिह्नों पर चलकर इतिहास बदलने के लिए तैयार हो जाओ। समाज में ताड़का, सूर्पणखा समेत आसुरी वृत्तियों के नाश के लिए राम बनना होगा। राम आदर्शों के चरमोत्कर्ष हैं। शैशव, तरुणाई, जीवन-मरण सब जगह राम हैं। बिना राम के भारत नहीं।राम के पदचिन्हों पर चलकर इतिहास बदलें। उन्होंने भरत के चरित्र का गुणगान करते हुए राम-भरत मिलन प्रसंग का जीवन्त शब्द चित्र खींचा।
श्री शास्त्री ने बताया कि प्रबल प्रेम के पाले पड़कर प्रभु को नियम बदलते देखा। भगवान केवट के समीप आए। गंगाजी का किनारा भक्ति का घाट है और केवट भगवान का परम भक्त है, किंतु वह अपनी भक्ति का प्रदर्शन नहीं करना चाहता था। अत: वह भगवान से अटपटी वाणी का प्रयोग करता है। केवट ने हठ किया कि आप अपने चरण धुलवाने के लिए मुझे आदेश दे दीजिए, तो मैं आपको पार कर दूंगा । केवट ने भगवान से धन-दौलत, पद ऐश्वर्य, कोठी-खजाना नहीं मांगा। उसने भगवान से उनके चरणों का प्रक्षालन मांगा। केवट की नाव से गंगा पार करके भगवान ने केवट को उतराई देने का विचार किया। सीता जी ने अर्धांगिनी स्वरूप को सार्थक करते हुए भगवान की मन की बात समझकर अपनी कर-मुद्रिका उतारकर उन्हें दे दी। भगवान ने उसे केवट को देने का प्रयास किया, किंतु केवट ने उसे न लेते हुए भगवान के चरणों को पकड़ लिया। जो देवताओं के लिए भी दुर्लभ है, ऐसे भगवान के श्रीचरणों की सेवा से केवट धन्य हो गया। भगवान ने उसके निस्वार्थ प्रेम को देखकर उसे दिव्य भक्ति का वरदान दिया तथा उसकी समस्त इच्छाओं को पूर्ण किया।
उन्होंने कहा कि चित्रकूट पर भगवान का आगमन हुआ। यहां से भील राज (निषाद) भगवान को प्रणाम करके अपने गृह के लिए वापस हुए। मार्ग में शोकातुर सुमंत जी को धैर्य देकर उन्होंने अवध भेजा। सुमंत द्वारा रामजी का वन गमन सुनकर महाराज दशरथ ने प्राणों का त्याग कर दिया। कैकेयी का त्याग करके भरत मां कौशल्या के भवन में आए। माता कौशल्या ने भरत को पूर्ण वात्सल्य प्रदान किया व राम वनवास और दशरथ मरण की संपूर्ण घटना को सुनाया। भरत ने मां के सामने शपथ पूर्वक कहा, मां मैं आपको भगवान श्रीराम से पुन: मिलाउंगा। भाई-भाई के प्रेम का दर्शन कराने के लिए ही श्रीराम और भरत जी के मिलन का प्रसंग आया। दोनों भाई एक दूसरे के लिए संपत्ति और सुखों का त्याग करने के लिए उद्यत थे और विपत्ति को अपनाना चाहते थे। यही भ्रातृप्रेम है। भरत ने भगवान की चरण पादुकाओं को सिंहासनारूढ़ किया और चौदह वर्ष तक उनकी सेवा की। यह भ्रातृ प्रेम की पराकाष्ठा है। भरत जी के नाम का अर्थ ही है- भ अर्थात् भवित, र अर्थात् रति, त अर्थात् त्याग।
इस अवसर पर ग्रामीणों में श्रद्धा पूर्वक कथा का श्रवण किया ।भरत मिलाप की कथा सुनकर श्रोता भाव विभोर हो गए।ग्राम प्रधान मुकेश कुमार शर्मा ने सपत्नीक व्यासपीठ की आरती उतारी तथा पूजा अर्चना की।
INPUT-VINAY CHATURVEDI
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