Visitors have accessed this post 600 times.

आजादी के 69 साल बाद भी हमारे देश का नागरिक आजाद नहीं है। देश आजाद हो गया, लेकिन देशवासी अभी…
आजादी के 69 साल बाद भी हमारे देश का नागरिक आजाद नहीं है। देश आजाद हो गया, लेकिन देशवासी अभी भी बेड़ियों के बन्धन में बन्धे हैं। ये बेड़ियां हैं अज्ञानता की, जातिवाद की, धर्म की,आरक्षण की, गरीबी की, सहनशीलता की,मिथ्या अवधारणाओं की आदि आदि।
किसी भी देश की आजादी तब तक अधूरी होती है, जब तक वहां के नागरिक आजाद न हों। आज क्यों इतने सालों बाद भी हम गरीबी में कैद हैं, क्यों जातिवाद की बेड़ियां हमें आगे बढ़ने से रोक रही हैं?, क्यों आरक्षण का जहर हमारी जड़ों को खोखला कर रहा है? क्यों धर्म जो आपस में प्रेम व भाईचारे का संदेश देता है वही, आज हमारे देश में वैमनस्य बढ़ाने का कार्य कर रहा है, क्यों हम इतने सहनशील हो गये हैं कि कायरता की सीमा कब लांघ जाते हैं, इसका एहसास भी नहीं कर पाते?
क्यों हमारे पूर्वजों द्वारा कही बातों के गलत प्रस्तुतीकरण को हम समझ नहीं पाते? क्यों हमारे देश में साक्षरता आज भी एक ऐसा लक्ष्य है जिसको हासिल करने के लिए योजनाएं बनानी पड़ती हैं? क्यों हमारे देश के सर्वश्रेष्ठ शिक्षित एवं योग्य युवा विदेश चले जाते हैं। आज हम एक युवा देश हैं, जो युवा प्रतिभा इस देश की नींव है वह पलायन को क्यों मजबूर है?
क्या वाकई में हम आजाद है? क्या हमने कभी सोचा है कि ऐसा क्यों है? आज आजादी के इतने सालों बाद भी हम आगे न जा कर पीछे क्यों चले गए वो भारत देश जिसे सोने की चिड़िया कहा जाता था जिसका एक गौरवशाली इतिहास था, उसके आम आदमी का वर्तमान इतना दयनीय क्यों है? क्या हममें इतनी क्षमता है कि अपने पिछड़ेपन के कारणों की विवेचना कर सकें और समझ सकें।
दरअसल, जीवन पथ में आगे बढ़ने के लिए बौद्धिक क्षमता की आवश्यकता होती है। इतिहास गवाह है युद्ध सैन्य बल की अपेक्षा बुद्धि बल से जीते जाते हैं।
किसी भी देश की उन्नति अथवा अवनति में कूटनीति एवं राजनीति अहम भूमिका अदा करते हैं। पुराने जमाने में सभ्यता इतनी विकसित नहीं थी, तो एक दूसरे पर विजय प्राप्त करने के लिए बाहुबल एवं सैन्य बल का प्रयोग होता था। विजय रक्त रंजित होती थी।
जैसे-जैसे मानव सभ्यता का विकास होता गया। मानव व्यवहार सभ्य होता गया, जिस मानव ने बुद्धि के बल पर सम्पूर्ण सृष्टि पर राज किया आज वह उसी बुद्धि का प्रयोग एक दूसरे पर कर रहा है।
कुछ युद्ध आर-पार के होते हैं, आमने-सामने के होते हैं, जिसमें हम अपने दुश्मन को पहचानते हैं, लेकिन कुछ युद्ध छद्म होते हैं, जिनमें हमें अपने दुश्मनों का ज्ञान नहीं होता। वे कैंसर की भांति हमारे बीच में हमारे समाज का हिस्सा बन कर बड़े प्यार से अपनी जड़े फैलाते चलते हैं और समय के साथ हमारे ऊपर हावी होकर अपने लक्ष्य की प्राप्ति करते हैं।
इस रक्तहीन बौद्धिक युद्ध को आप बौद्धिक आतंकवाद भी कह सकते हैं। कुछ अत्यंत ही सभ्य दिखने वाले पढ़े-लिखे सफेद पोश तथाकथित सेकुलरों द्वारा अपने विचारों को हमारे समाज हमारी युवा पीढ़ी हमारे बच्चों में बेहद खूबसूरती से पाठ्यक्रम, वाद विवाद, सेमीनार,पत्र पत्रिकाओं, न्यूज़ चैनलों आदि के माध्यम से प्रसारित करके हमारी जड़ों पर निरन्तर वार किया जा रहा है।
यकीनन इस प्रकार तर्कों को प्रस्तुत किया जाता है कि आम आदमी उन्हें सही समझने की भूल कर बैठता है। बौद्धिक आतंकवाद का यह धीमा जहर पिछले 69 सालों से भारतीय समाज को दिया जा रहा है और हम समझ नहीं पा रहे।
आइए इतिहास के झरोखे में झांके —
यह एक कटु सत्य है कि 1947 में जब देश आजाद हुआ तो हमारे देश की सत्ता उन हाथों में थी, जिन्‍होंने देश को भ्रष्‍टाचार में आकंठ डुबो दिया, जिनके कारण आज भी हमारे देश में गरीबी एक मुद्दा है।
आज देश हित में बोलना,  देश की संसद पर हमला करने वाले और जेहाद के नाम पर मासूम लोगों की जान लेने वाले आतंकियों को सज़ा देना, भारत माता की जय बोलना, शहीद सैनिकों के हितों की बात करना असहिष्णुता की श्रेणी में आता है, किन्तु इशारत जहां और अफजल गुरु सरीखों को शहिद बताना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बन गई है।
प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के बयान भगवा आतंकवाद की श्रेणी में आते हैं, लेकिन 26/11 के हमले में आतंकवाद का रंग बताना असहिष्णु होना हो जाता है। दादरी मे अखलाक की हत्या साम्प्रदायिक हिंसा थी, लेकिन दिल्ली में डॉ. नारंग की हत्या “मासूमों “द्वारा किया एक साधारण अपराध, जिसे साम्प्रदायिकता के चश्मे से न देखने की सलाह दी जा रही है। तथाकथित सेक्यूलर इसे भी अभिव्यक्ति की आजादी कहें तो कोई आश्चर्य नहीं। हो सकता है कि वे कहें कि मुद्दा स्वयं को अभिव्यक्त करने का था, सो कर दिया केवल तरीका ही तो बदला है। इस बार हमने स्वयं को शब्दों से नहीं कर्मों से अभिव्यक्त किया है यह स्वतंत्रता हमारा अधिकार है।
अगर हम बुद्धिजीवी हैं तो हमें यह सिद्ध करना होगा। कुछ मुठ्ठी भर लोग हम सवा करोड़ भारतीयों की बुद्धि को ललकार रहे हैं। आइए उन्हें जवाब बुद्धि से ही दें। जिस दिन हम सवा करोड़ भारतीयों के दिल में यह अलख जगेगी कि हमें अपने क्षेत्रों और जातियों से ऊपर उठ कर सोचना है, उस दिन उसकी रोशनी  केवल भारत ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व में भी फैलेगी।जब हम स्वयं पर विजय प्राप्त कर लेंगे तो विश्व गुरु बनने से हमें कौन रोक पायेगा

INPUT – MANOJ SINGH RANA